Sunday, June 13, 2010

जब सो जाता है सारा जहाँ

जब सो जाता है
सारा जहाँ
मैं जगता रहता हूं
अपनी तनहाइयों के साथ .

रात के सन्नाटे में
सुनने का प्रयास करता हूं
निशाचरों की आवाज़
मोहल्ले के चौकीदार की
लाठी की ठक-ठक
जब टकराती है
कानो में आकर
रात की बेवसी को सोचता हूं
सहानुभूति की दरकार नही मुझे
अपनी तनहाइयों में खुश हूं मैं
मेरे अपने--
अब बीते दिनो की बात है

झींगर की झिं - झिं
अब कानो को सुहानी सी लगती है
सन्नाटे को चीरती
रेल की छुक - छुक
बेचैन नही करती मुझे
रातों को जागना अब मुझे अच्छा लगता है .
रात की भी अपनी
सीमा है
तनहाइयों को झेलने की
जी नही मैं -
किसी अमेरिकी कंपनी में कम नही करता
रात में बैठा रहता हूं
अपने कमरे में
आकृतियाँ बनाता रहता हूं
हँसते बच्चों का
रोती हुई एक असहाय माँ  का
और न जाने क्या -क्या
मेरे इर्द - गिर्द घुमते हैं
बीते हुए जीवन  के
सुनहरे दिनों की याद
उभर उठते हैं
मन- मस्तिस्क के मानचित्र पर
इसीलिए अब
सुबह की प्रतीक्षा
नही सुहाता मुझको
केवल रात की तनहाइयाँ
अच्छी लगती है मन को
लोग सो कर जीते हैं
मै जागकर जी रहा हूं .

1 comment:

  1. Wah ky abat hai bhai...iski ghario ko ek kavi hi samajh sakta hai!!!

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