मैं बहुत डरा हुआ हूँ
किसी दुश्मन से नहीं
किसी हमलावर से नहीं
बल्कि उन लोगों से
जो जीवित हैं
किन्तु उनका ज़मीर मर चुका है
डरा हुआ हूँ उनसे
जिन्होंने अब भी चुप्पी साध रखी है
और सबसे ज्यादा भयभीत हूँ
उन कवियों से
जिनकी कलम से गायब हो चुका है
प्रतिरोध |
किसी दुश्मन से नहीं
किसी हमलावर से नहीं
बल्कि उन लोगों से
जो जीवित हैं
किन्तु उनका ज़मीर मर चुका है
डरा हुआ हूँ उनसे
जिन्होंने अब भी चुप्पी साध रखी है
और सबसे ज्यादा भयभीत हूँ
उन कवियों से
जिनकी कलम से गायब हो चुका है
प्रतिरोध |
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ReplyDeleteक्या तकलुफ करें ये कहने में
ReplyDeleteकि जो भी खुश हैं हम उससे जलते हैं।
जॉन एलिया साब का ये शेर सहसा ही याद आ गया आपकी कविता पढ़ कर।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत रहेगा
गहरी बात ...
ReplyDeleteक़लम का रुक जाना भयभीत करता है ...
बहुत बढ़िया
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