बेवफा बादल
काले बादल
नभ पर छाये
नए उमंग
मन में जागे
किसान खेतों की और भागे
जंगल में भी मोर नाचे
वाह क्या बादल छाये /
पतझड़ तरु के
आस जागे
जिन्होंने वर्षा के वर मांगे
फिर जीने की चाह में
सूखा तिनका
उठ बैठा
बादल देख
वह खिल उठा
सुखे झरने नदियों ने
प्रिया मिलन सा श्रृंगार किया
जल की रानी
तड़प उठी
उसमे नई उन्माद उठी /
ढोल नगाड़े
बज रहे
गावों में सब नाच रहे
श्रावण की आश में
मिठाइयाँ बाँट रहे
किन्तु -
मेघ बेवफा निकला
सबकी उम्मीद तोड़ कर निकला
जीवन की चाह जगाकर मन में
बादल भागा नेता की तरह ./
Monday, June 28, 2010
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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वे सारे रंग जो साँझ के वक्त फैले हुए थे क्षितिज पर मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में तुम्हारे लिए वर्षों से किताब के बीच में रख...
च्छी लगी आपकी रचना बधाई
ReplyDeleteवर्षा ऋतु की आपको भी बधाई।
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