Wednesday, August 25, 2010

इस पानी को हल्का मत समझो

जिस पानी को तुम समझ रहे हो
आज हल्का
इसी पानी ने स्वयं
तोड़कर चट्टानों  को  बनाया अपना रास्ता
और मैदानों में जाकर दिखाया
अपना भव्य रूप .
यह वही पानी है
जिसने शायद -
उजाड़ा  था हड़प्पा - मोहंजोदारो  को
और शायद -
दौड़ती है रक्त बन कर हमारी नशों में
और गंगा - कावेरी - गोदावरी के रूप में
हमारी संस्कृति में .
यह वही पानी है
जो -
द्रव रूप में संचित है पुष्प कलश में
यह वही पानी है
जो-
निकला  था शिव की जटा से
और -
सीता और द्रौपदी की नैनों से अश्क बनकर
और बना था काल कारण
रावण और कौरवों का .

मत  उसकाओ  इसे 'सैलाब' के लिए
नीलगगन के आंगन  में उड़ते
बादलों को हल्का मत समझो
कहर बन कर गिरा था यह
लेह- लद्दाख में.
इसके विशाल स्वरुप को देखो जाकर-
प्रशांत- हिंद महासागर में
इसकी सभ्यता की निशां
आज भी बाकि है
नील- सिधु के किनारे .

बांध बनाकर रोकोगे
इसे कबतक ?
सब तोड़ कर बह जायेगा
सुनामी बनकर आयेगा
सब कुछ  बहा ले जायेगा .

5 comments:

  1. Wah bhai ye to pure Global warming ke effect ko aapne aapni kavita se bata dia....bahut khub..

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  2. अच्छी रचना ...पानी में बहुत ताकत है ....बिना पानी के भी ज़िंदगी नहीं और पानी के सैलाब में भी डूब जाती है ज़िंदगी ...

    मत उसकाव इसे सैलाब के लिए

    यहाँ उसकाव शब्द शायद उकसाओ होना चाहिए था ..


    कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणी करने में परेशानी होती है

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  3. बांध बनाकर रोकोगे
    इसे कबतक ?

    वर्तमान परिपेक्ष में आपकी कविता सटीक बैठती है.

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  4. बहुत अच्छी रचना है ये ... जल के भिन्न भिन्न रूपों को आपने का आपने काफी अच्छा विवरण किया है ..

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  5. प्रकृति के किसी भी तत्व को छोटा और कमज़ोर समझने की भूल मनुष्य जब जब करेगा .....उसे अपनी गलती का भुगतान करना पड़ेगा ...फिर चाहे वह आग हो, पानी हो ,पृथ्वी हो , वायु हो या आत्मा .....सशक्त रचना !!!!!

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