Friday, August 24, 2012

भागीरथी को देखकर

एक शाम बैठा था 
विशाल ,चंचल भागीरथी के किनारे 
निरंतर बहती जल धारा 
कहाँ से पाई है 
इसने प्रेरणा ?

उसके मध्यम लहरों को देख 
उठीं लहरें कई
मेरे भी मन में
ऊपर फैला नीलाम्बर
दूर तक
उसके आंगन में खेलते
शाम -श्वेत मेघों के टुकड़े
क्षितिज पर ढलता सूरज
एक क्षण नही भूलता
वह मनोरम दृश्य

नदी के मध्यम लहरों को
टूटते देख किनारे पर
मुस्कुरा उठा था
मेरा छोटा भाई
क्या सोचा था उसने ?

जमीं समा रही है
इस नदी के गर्भ में ,अहिस्ता -अहिस्ता
निरतंर लगी हुई है
अपने विस्तार में
सागर से मिलने को आतुर
मंद पड़ गई है
मुहाने पर आकर

दूर उस पार
कुछ बौने पेड़ों के साये
मुग्ध हो रहे थे
देख कर इसकी विशाल काया

अचानक विचलित हो उठा था
मेरा मन
सोचकर इस नदी का भविष्य
क्या यूँ ही बना रहेगा
इस जलधारिणी का यह भव्य रूप सदा ?

सहसा टूट टूट गई
मेरे मन की सारी लहरें
भागीरथी की लहरों की तरह .............

1 comment:

  1. एक शसक्त हस्ताक्षर है यह कविता ..

    ReplyDelete

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...