मज़हब के बाज़ार में
बिक गया अवाम
बिक गया अवाम
कुछ को है हैरानी
हंसते उधर तमाम
हंसते उधर तमाम
देखिये, मंज़र-ए-आम
बाहर मयखाने के छलक रहे जाम
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
बहुत खूब... ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteहौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया आपका
Deleteसादर नमस्कार
बहुत बढ़िया
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