Wednesday, May 27, 2020

उनके बिना कोई सभ्यता खड़ी नहीं हो सकती

सड़क पर
रेल पथ पर
या कहीं और
मरते मजदूरों और उनके परिजनों पर
कोई कविता नहीं लिख पाया
सच कहूं तो
मैं हिम्मत नहीं कर पाया
दरअसल
उन शवों में मैंने हर वक्त
खुद को मरा हुआ पाया
न तो मैं रो पाया जोर से
न ही किसी से कह सका
इन तमाम लाशों के बीच
आपने मुझे पहचाना नहीं
मुझे तो लगा
आप सभी ज़िंदा हैं !!
परेशान मत होइए
मजदूर रोज मरते हैं और
जन्म लेते हैं
उनके बिना
कोई सभ्यता खड़ी नहीं हो सकती
किंतु अब उनकी मौत को
हत्या ही कहा जाएगा !!

No comments:

Post a Comment

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...