Wednesday, January 19, 2011

आदमी के नजरों का इंतेज़ार होता होगा शायद

आज फुर्सत से फिर
चाँद को देखा मैंने
शहर के एक पार्क में बैठे हुए
गोल चाँद की मनभावन मुस्कराहट
बिखर रही थी
पार्क के वृक्षों और लताओं पर
आकाश का चाँद आज खुश था --
कि मैं उसे देख रहा हूं
और मैं खुश था  सोच यह
कि  वो मुझे देख रहा है --
बैठे हुए इस महानगर के  एक निर्जन पार्क में .

चाँद जान चुका है आज , कि
शहरी लोगों के पास
समय नही है उसे देखने की
आफिस , शापिंग -डिस्को से फुर्सत कहाँ है  किसी के पास
चाँद को देखने की
वे तो टी . वी . पर चाँद देखते हैं
यों भी  चादनी अब
धुंधली सी गई है
प्रदूषण और एडिसन के अविष्कार के आगे
जो थोड़ा वक्त बचता है
उसे टी . वी . खा लेता है
छत पर चड़ने की  हिम्मत कहाँ बचती है अब
और  बिजली गुम होने पर
गगनचुम्भी इमारतों के घने जंगल में घिरा रहता है आदमी
इस शहरी आदमी के नसीब का पता नही मुझको
किन्तु चाँद को आज
आदमी के नजरों का इंतेज़ार होता होगा शायद .

1 comment:

  1. prakrit ke dard ko kagaj pe utarne ke liye dhanyavad sir ji....

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