आज फुर्सत से फिर
चाँद को देखा मैंने
शहर के एक पार्क में बैठे हुए
गोल चाँद की मनभावन मुस्कराहट
बिखर रही थी
पार्क के वृक्षों और लताओं पर
आकाश का चाँद आज खुश था --
कि मैं उसे देख रहा हूं
और मैं खुश था सोच यह
कि वो मुझे देख रहा है --
बैठे हुए इस महानगर के एक निर्जन पार्क में .
चाँद जान चुका है आज , कि
शहरी लोगों के पास
समय नही है उसे देखने की
आफिस , शापिंग -डिस्को से फुर्सत कहाँ है किसी के पास
चाँद को देखने की
वे तो टी . वी . पर चाँद देखते हैं
यों भी चादनी अब
धुंधली सी गई है
प्रदूषण और एडिसन के अविष्कार के आगे
जो थोड़ा वक्त बचता है
उसे टी . वी . खा लेता है
छत पर चड़ने की हिम्मत कहाँ बचती है अब
और बिजली गुम होने पर
गगनचुम्भी इमारतों के घने जंगल में घिरा रहता है आदमी
इस शहरी आदमी के नसीब का पता नही मुझको
किन्तु चाँद को आज
आदमी के नजरों का इंतेज़ार होता होगा शायद .
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