Tuesday, September 7, 2010

जनपदों पर अब

भारत के गलियों में
आजकल
त्रिलोचन नही दिखते
आजकल वे कवितायेँ नही लिखते
जनपदों पर अब
नागार्जुन नही दिखते
क्या इन महान कवियों ने
भांप लिया था समय को
समय से पहले ?
शायद उन्हें ज्ञात हो गया था
आने वाला कल
बस्ती की गली में जो चाय की दुकान थी
उसपर अब चाय नही मिलती
मिलती है
विदेशी शीतल पेय पदार्थ
महानगरों के भीड़ में
अब जनमानस नही दिखता
मुझे देहाती दिखते हैं
भारतीय नही दिखता
क्या मेरी नज़र खो गयी है ?
क्या जनपदों के कवि
सच में लुप्त हो गए हैं
या ----
लुप्त करने की एक साजिस में
उन्हें कैद कर दिया गया है
अलमारी के घुन लगी पुस्तकों में ?

4 comments:

  1. बेहतरीन रचना .....कडवा सच....!दुष्यंत त्यागी,धूमिल,शलभ श्री राम सिंग,नागार्जुन,भवानी भाई आदि अपने अन्दर की बैचेनी को नहीं झेल सके और किताबें रंग दी सच को अपने आक्रोश तो कभी उलाहनों,व्यंगों न जाने कितने ही माध्यमों से ज़ाहिर करने में , पर सच से समाज को समय समय पर चेताने वाले हाथों की कलम को तो शांत कर दिया समय और नियति ने परन्तु देश का भाग्य लिखने वाले सीना ठोककर कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे है और जायेंगे....न जाने कब और कहाँ तक....
    वंदना

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  2. बेहतरीन रचना .....कडवा सच....!दुष्यंत त्यागी,धूमिल,शलभ श्री राम सिंग,नागार्जुन,भवानी भाई आदि अपने अन्दर की बैचेनी को नहीं झेल सके और किताबें रंग दी सच को अपने आक्रोश तो कभी उलाहनों,व्यंगों न जाने कितने ही माध्यमों से ज़ाहिर करने में , पर सच से समाज को समय समय पर चेताने वाले हाथों की कलम को तो शांत कर दिया समय और नियति ने परन्तु देश का भाग्य लिखने वाले सीना ठोककर कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे है और जायेंगे....न जाने कब और कहाँ तक..... really good one

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  3. वाःह्ह सुन्दर.. एक वाजिब सवाल...

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  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...