Sunday, November 21, 2010

धूप पिघल रही है

धूप पिघल रही  है

और --

आदमी सूख रहा है जलकर 
...
राजा लूट रहा

मंत्री सो रहा है

वकील जाग रहे हैं

विपक्ष नाच रहा है

सड़क पर कुत्ते भौंक  रहे है

"मैं " नासमझ दर्शक की तरह

सब कुछ खामोश देख रहा हूं ?

9 comments:

  1. यही तो विडंबना है मेरे भाई , अब कब जागोगे

    ReplyDelete
  2. हाँ,सुनील जी ने गागर में सागर भरने के वजन की टिप्पणी की है. जोड़ना केवल यह है कि प्रश्न'अब कब जागोगे'नही, 'हम-आप कब जागेंगे?' का बनता है.

    ReplyDelete
  3. सुनील जी, धन्यवाद . "मैं " पहचान नही पाए आप

    ReplyDelete
  4. जिंदगी को हम लोगो ने ऐसा बना लिया है की चलते हुए भी सोते रहते है...और फिर दूसरे से जागने की अपेक्षा करते है...जब सड़को पर चलते है तो देख कर आँख फिरा लेते है...अब मुझे लगता है की जागने के लिए कोई जागरण दिवस सरकार को घोषित करना पड़ेगा...लेकिन सरकार क्या करेगी ये सब जानते है...नित्यानंद जी आप की कविता हो सकता है कुछ लोगो को जागरण दिवस के पहले जगा दे और सरकार को जागरण दिवस घोषित ना करना पड़े...

    ReplyDelete
  5. "मैं " नासमझ दर्शक की तरह
    सब कुछ खामोश देख रहा हूं //
    waqt aa gaya hai isi khamoshi ko todne ki..

    ReplyDelete
  6. Khaamoshee ko pakne do..
    ek din ubalegee bhee
    tab taaqat apnee dikhalayegee
    sannaate kee yehi khamoshee...
    Kamlesh Mishra

    ReplyDelete
  7. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...