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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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एक नदी जो निरंतर बहती है हम सबके भीतर कहीं वह नदी जिसने देखा नही कभी कोई सूखा वह नही जिसे प्यास नही लगी कभी मैं मिला हूँ उस ...
यही तो विडंबना है मेरे भाई , अब कब जागोगे
ReplyDeleteहाँ,सुनील जी ने गागर में सागर भरने के वजन की टिप्पणी की है. जोड़ना केवल यह है कि प्रश्न'अब कब जागोगे'नही, 'हम-आप कब जागेंगे?' का बनता है.
ReplyDeleteसुनील जी, धन्यवाद . "मैं " पहचान नही पाए आप
ReplyDeleteजिंदगी को हम लोगो ने ऐसा बना लिया है की चलते हुए भी सोते रहते है...और फिर दूसरे से जागने की अपेक्षा करते है...जब सड़को पर चलते है तो देख कर आँख फिरा लेते है...अब मुझे लगता है की जागने के लिए कोई जागरण दिवस सरकार को घोषित करना पड़ेगा...लेकिन सरकार क्या करेगी ये सब जानते है...नित्यानंद जी आप की कविता हो सकता है कुछ लोगो को जागरण दिवस के पहले जगा दे और सरकार को जागरण दिवस घोषित ना करना पड़े...
ReplyDeletebilkul sach kaha.........badhia
ReplyDeleteshukriya ana jee, vivek jee.
ReplyDelete"मैं " नासमझ दर्शक की तरह
ReplyDeleteसब कुछ खामोश देख रहा हूं //
waqt aa gaya hai isi khamoshi ko todne ki..
Khaamoshee ko pakne do..
ReplyDeleteek din ubalegee bhee
tab taaqat apnee dikhalayegee
sannaate kee yehi khamoshee...
Kamlesh Mishra
This comment has been removed by the author.
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