Thursday, September 16, 2010

मेरी ऐसी औकात कहाँ

मेरी ऐसी औकात कहाँ

कि मैं बनायुं मंदिर तुम्हारा

मुझमे ऐसी ताकत कहाँ कि

मैं तोडू मस्जिद तुम्हारा

मैं भक्त गरीब तुम्हारा

मैं बंदा फकीर तुम्हारा

अपना घर मैं अब तक बना न पाया

कैसे जलाऊँ बस्ती

भूख की आग पेट में जल रही

मैं कैसे करूं मस्ती ?

तुम्हारे मंदिर - मस्जिद

पर मैं कुछ कहूं

मेरी कहाँ है ऐसी हस्ती ?

छोड़ दिया है

यह काम उनपर

जिनके लिए है मानव जीवन सस्ती

जो आपने सोचा न था

कर रहे हैं बन्दे

इतनी मुझमें हिम्मत कहाँ

कि कह दूं इन्हें मैं गंदे

यदि कहीं है

अस्तित्व तुम्हारा

मेरे लिए समान है

कैसे तुमने यह होने दिया

जब तुम्हारे हाथों  में कमान हैं ?

कबीर को अब कहाँ से लाऊं

रहीम को मैं कैसे बुलाऊँ

नानक को यह भूल गये हैं

साधु- मौलबी बन गए हैं

कैसे इन्हें मैं समझाऊँ ?

तुम्हारे और इनके बीच अब

बढ गए हैं फासले

इसीलिए

बढ गए हैं इनके नापाक हौसले .

6 comments:

  1. Ishwar ko bhi baant liya hai public ne. karna kuchh nahi bus aag lagake apni roti sekni hai..

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  2. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

    word verificaton hata den ...shaayad pahale bhi kaha gaya tha ...

    dashboard > settings > comments ..yahan aapko word verification milega ..

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  3. सटीक अभिव्यक्ति...काश कबीर, नानक और रहीम आज हमारे बीच खड़े हो पाते तो ये गंदे शायद अच्छे हो जाते.

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  4. कल गल्ती से तारीख गलत दे दी गयी ..कृपया क्षमा करें ...साप्ताहिक काव्य मंच पर आज आपकी रचना है


    http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/17-284.html

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  5. बहुत सुन्दर रचना
    सच भी तो यही है .. हमें अपने सपनों से फुर्सत नहीं भला हम कहाँ मन्दिर और मस्जिद बना या तोड़ सकते हैं.

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  6. मेरा धन्यवाद स्वीकारें

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  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...